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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

न जाने कहाँ-कहाँ

1

जाड़ा बिदा हो चुका था।

हर कमरे में, डाइनिंग रूम में, टी.वी. वाले कमरे में हर समय फुलफोर्स में पंखे घूमते रहते। चैताली के अलावा, कमरे से उठकर जाते वक़्त कोई भी पंखा बन्द नहीं करता था।

प्रवासजीवन के कमरे में अभी भी पंखा चलना शुरू नहीं हुआ है। ये लोग कमरे में घुसते ही बोल उठते, "अरे बाप रे ! आप भी अजीब हैं। इस गरमी में..." और पंखे का स्विच ऑन कर देते।

काटुम या काटाम कमरे में घुसते ही ही ही' करके हँसने लगते, “बाबानी, आपने अपनी रजाई हटा दी है? ओढ़ोगे नहीं?

हालाँकि प्रवासजीवन ऐसी बातों का बुरा नहीं मानते हैं। उन्हें सचमुच उतनी गरमी लगती नहीं है। बल्कि सुबह तड़के और शाम को जैसे ही सूरज ढलता है उन्हें हल्की ठण्ड लगती है। तब वे पतला-सा एक शॉल खींचकर ओढ़ लेते हैं।

आज भी एक शॉल ओढ़े शाम की डाक में आये पत्रों को देख रहे थे। एक आध पत्र-पत्रिकाएँ आज भी आती हैं। अंग्रेजी जर्नल। उन्हीं जर्नलों के बीच में से एक उनके नाम का लिफाफा देखकर आश्चर्यचकित हुए। परिचित, महिला की लिखाई-यद्यपि अब जो प्रायः विस्मिता थी।

पत्र को दो-तीन बार पढ़ा और अपने अनजाने में शॉल हटाकर कुछ चंचल हो उठे। इन लोगों से यह बात कहेंगे कैसे?

न जाने क्यों जब से 'प्रनति' चली गयी हैं, घर के अन्य लोगों को वे इकाई के रूप में देखते हैं ये लोग' ‘इनका' ‘इन्हें'। अलग किसी की कोई सत्ता नहीं थी प्रवासजीवन के लिए।

जबकि 'ये लोग' हैं कौन? बड़ा बेटा दिव्य, उसकी पत्नी चैताली, उनके दो बच्चे ‘काटुम' 'काटाम'। हालाँकि एक जन और भी है। छोटा बेटा सौम्य। पर वह इस घर में रहता ही कितना है ! और उसका सम्बन्ध है ही किसके साथ ! वह 'इन लोगों का भी कोई नहीं, प्रवासजीवन का भी कोई नहीं। घर के किसी विषय से वह जुड़ा नहीं है। फिर भी, जब तक प्रनति थीं शायद पतली-सी एक डोर से बँधा था अब तो खैर वह डोर टूट ही चुकी है।

युनिवर्सिटी के रजिस्टर पर नाम ज़रूर चढ़ा हुआ है। समय से जाता है या नहीं, किसी को पता नहीं। कौन जाने, जाता हो ! लेकिन उसे पढ़ते-लिखते किसी ने देखा नहीं। तो क्या किसी राजनीतिज्ञ सीनियर भइया के चंगुल में फँसा है? वैसा कुछ भी तो नहीं लगता है।

खैर, उसके बारे में कोई सोचता नहीं है। घर में दोनों वक्त खाता है, रात को सोता है, इतना ही काफ़ी है।

जबकि प्रवासजीवन के मन की गहराइयों में एक अनबुझी प्यास है, इच्छाओं की प्यास। मन कहता है, सोचें, सुमू मेरा है। जी चाहता है कि सुमू कभी-कभार आकर उनके कमरे में बैठे, उनसे बात करे। वह उनके चहरे की ओर देखें, उसके शरीर की महक को सूँधै।

सबसे छोटा ये बेटा, लम्बा भले ही बाप-भाई-सा हो गया है, चेहरा हू-ब-हू माँ जैसा है। चेहरे की बनावट, ठोढ़ी और बात करते समय आँखों के कोनों का थोड़ा सिकुड़ना और हँसने पर गालों में गड्ढे पड़ना बिल्कुल प्रनति जैसा। हँसते सुनो तो लगता है, प्रनति ही हंस रही है।

पर हँसने देखने का मौक़ा ही कब मिलता है प्रवासजीवन को ! सुनते हैं कभी-कभी हँसने की आवाज़ सुनाई पड़ जाती है। यूँ भी गम्भीर प्रकृति का तो है नहीं न ! लेकिन हँसना बोलना सब कछ भतीजे-भतीजी के साथ ही होता है। घर पर जितनी देर रहता है, बच्चों के साथ रहता है। बच्चे पुकारते हैं चाचाई।

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